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Showing posts from September, 2019

सेमल के फूल की तरह अद्भुत सुंदर होती हैं कुर्दिश लड़कियां और इन्हीं ही सबसे ज्यादा यातना प्रताड़ना हो रही है आईएसआईएस द्वारा

#सेमल_का_फूल, बोले तो #कुर्दिश_लड़कियाँ....        इराक, सीरिया और तुर्की में से थोड़ा थोड़ा हिस्सा मिला कर बनता है कुर्दिस्तान। एक ऐसा देश जो है ही नहीं। जो लड़ रहा है अपने होने के लिए... पता नहीं हो पायेगा भी या नहीं।       उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद जब देशों की सीमा रेखा खींची जाने लगी तब किसी ने कुर्दों की पुकार नहीं सुनी, सो उन्हें अपना देश नहीं मिला। इराक बन गया, सीरिया बन गया, तुर्की बन गया... कुर्दिस्तान नहीं बना। कुर्दिस्तान के नहीं बसने की कूर्द पीड़ा  को समझना हो तो सीमांत गाँधी कहलाने वाले महान बलूच नेता खान अब्दुल गफ्फार खान को समझिए। भारत विभाजन के समय रोते हुए खान ने गाँधी से कहा था, "आप नहीं जानते बापू कि आपने हमें कैसे भेड़ियों के मुह में धकेल दिया है। ये पाकिस्तानी भेड़िये हमें नोच डालेंगे।" गाँधी आह भर कर रह गए...      वर्षों बाद जब चिकित्सा के लिए खान साहब भारत आये तो तात्कालिक प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी उनकी आगवानी को एयरपोर्ट तक गयीं। खान साहब के पास कपड़ों की एक पोटली भर थी, इंदिरा जी ने सभ्यता बस उनसे वह पोटली लेनी चाही तो खान साहब मु

भारतीय संस्कृति में उत्सव का अर्थव्यवस्था में योगदान व जीवन की समृद्धि

 भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है हमारी #उत्सवी_संस्कृति अपने धार्मिक पर्वो को ऋषि-महर्षियों ने किस तरह लोकजीवन से जोड़ा है- इसे स्मरण करते ही हमें अपने पूज्यों के प्रति नत व उनके प्रयासों के प्रति वरबस ही विस्मित रह जाना पड़ता है। अपने उत्सवों को ही देखें- एक ओर हमारी उत्सव संस्कृति हमारे प्राणिमात्र को आनन्द की अनुभूति कराती है, वहीं ऋषि प्रणीत नियमों का पालन हमारे स्वास्थ्य की चिन्ता भी करता चलता है। यह उत्सव एक अन्य प्रमुख कार्य भी अनायास करते हैं, वह है- अपने उत्पादों के लिए बाजार बनाना। ऋषिगण के इन प्रयासों का परिणाम जहां श्रमिक को अपने श्रम के प्रतिफल के रूप में मिलता है, वहीं यह सम्पूर्ण कारबार हमारे व्यापार-चक्र को गति दे जाता है। उदाहरण के लिए किसी देवपूजन के लिए आवश्यक पूजन सामग्री का अवलोकन करें। किसी पंथ विशेष की विशिष्ट आराधना के लिए आवश्यक अतिरिक्त सामग्री को छोड़ भी दें तो हमें देवपूजन के लिए सामान्यतः- रोली, चावल, कलावा, विभिन्न प्रकार की दालें, पान, सुपारी, नारियल, लौंग, इलाइची, जायफल, वस्त्र, पंचमेवा, धूप, दीप, गंध, हवन सामग्री, घृत आदि की आवश्यकता रहती है। अब जरा उत

राजव्यवस्था के वह अदृश्य पहलू जो शत्रु को पराजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है

गुप्तचर विभाग________________________ भारत में गुप्तचर सेवा के ढाँचे के तीन प्रमुख स्तंभ हैं: इंटेलिजेंस ब्यूरो, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग तथा डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी। इंटेलिजेंस ब्यूरो यानि IB का इतिहास अंग्रेजी शासन के समय का है जबकि R&AW का गठन इंदिरा गांधी के शासनकाल में कैबिनेट सचिवालय के एक विभाग के रूप में रामेश्वर नाथ काव ने किया था। डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी (DIA) का गठन सशस्त्र सेनाओं के तीनों अंगों द्वारा संकलित अलग अलग स्रोतों से मिली खुफिया रिपोर्ट में सामंजस्य बिठाने हेतु किया गया था। किसी भी इंटेलिजेंस एजेंसी का मुख्य कार्य संभावित खतरे का अनुमान घटना होने से पहले ही लगा लेना होता है। दूसरे शब्दों में, इंटेलिजेंस का काम अपराध होने से पहले का होता है जबकि जाँच या investigation अपराध होने के बाद की जाती है। इंटेलिजेंस मुख्यतः ऐसी सूचना जुटाने का कार्य है जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा प्रभावित होती है। आज के गतिशील वैश्विक परिदृश्य में सूचना ही सबसे कारगर और खतरनाक हथियार है। इलेक्ट्रॉनिक सर्विलांस, सिग्नल इंटेलिजेंस, टेक्निकल इंटेलिजेंस इन सब आधुनिक विधाओं के उद्भव से पहले
कुछ समय पहले मैंने गणितज्ञ वैज्ञानिक डॉ चन्द्रकान्त राजू के बारे में पोस्ट किया था - चर्च से अकेले दम भिड़ता योद्धा वैज्ञानिक। उस पोस्ट में उनके जीवन और उपलब्धियों की चर्चा थी, तो कुछ मित्रों का कहना था कि उनके द्वारा वर्णित सिद्धान्तों और तथ्यों पर भी एक लेख होना चाहिए। प्रस्तुत लेख में डॉ चन्द्रकान्त राजू द्वारा प्रतिपादित कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओ पर उनके विचार उनके शब्दों में दिये गये हैं। नए जुड़े मित्रों के लिये पिछले लेख की भूमिका दी जा रही है - गणित तो हम सभी ने पढ़ा होगा, परंतु क्या कभी गणित को औपनिवेशिक मानसिकता से स्वाधीनता दिलाने की लड़ाई भी हमने लड़ी है? गणित को स्वाधीन कराने की लड़ाई? क्या हमें कभी यह ध्यान में भी आया है कि गणित जैसा विषय भी औपनिवेशिक मानसिकता का शिकार हो सकता है? जी हाँ, न केवल गणित और विज्ञान औपनिवेशिक मानसिकता के शिकार हैं, बल्कि एक योद्धा गणितज्ञ गणित और विज्ञान को औपनिवेशिकता से मुक्त कराने की लड़ाई छेड़े हुए है, पूरी दुनिया घूम-घूम कर सभी महान और श्रेष्ठ माने जाने वाले गणितज्ञों को चुनौती दे रहा है। ये योद्धा गणितज्ञ हैं डॉ. चंद्रकांत राजू। धर्म विश

क्या श्राद्ध से पर्यावरण संतुलन सम्भव

पितृपक्ष का संबंध पितरों से है । पिता भर से उसका कोई संबंधनहीं है। नित्य तर्पण किया जाता है। ध्यान रहे यह नित्य कर्महै। शास्त्रों में इसे कर्म कहा गया है। तर्पण में सर्वप्रथम ब्रह्मा विष्णु रुद्र तथा समस्त देवों को तर्पण किया जाता है पूर्वाभिमुख हो कर। इसमें भू लोक,भुवः लोक और स्व: लोक सभी के देवों को ,देवियों को तर्पण करते हैं।फिर वेदों को, छंदों को,ऋषियों को, पुराण आचार्यो को,इतर आचार्यो को, गन्धर्वो को,देवानुगों को, नागों को, सागर, पर्वत ,नदियों, मनुष्यो ,यक्षों,राक्षसों, पिशाचो ,सुपर्णा,पशु, वनस्पतियों, वनों,औषधियों,समस्त प्राणियों और समस्त महाभूतों को तर्पण किया जाता है। इसके बाद ब्रह्मा के मानस पुत्रों को और ऋषियों को उत्तर अभिमुख होकर तर्पण करते हैं। फिर दक्षिणाभिमुख होकर दिव्य पितरों को,चतुर्दश यमों को तर्पण, फिर समस्त पितरों को आवाहन।फिर पिता, पितामह,प्रपितामह, वृद्ध प्रपितामह आदि को,पितामही, प्रपितमही, वृद्ध प्रपितमही को ,माता,मातामही, आदि सबको, मामा आदि न रहे हों तो उनको भी जितने कुटुम्बी नर नारी मृत हुए हों, सबको स्मरण कर नाम ले लेकर गोत्र सहित स्मरण कर तर्पण करते हैं

स्वाभिमानी और हरामखोरी के बीच उलझा यह समाज

   कड़ाह भर दाल, डोलची भर दाल.. #जेवनार_की_परंपरा सामूहिक भोज यानी कि जीमन। जेवनार = जीमणवार। जिम्मन। जीमण। ठेठ देसी। पारम्परिक। वह भी दो तरह का : १. पंगत ( पंक्ति में बिठाकर) और २. चेपी ( गिनती के मालपूए व डोलचीभर दाल देकर) दोनों ही जेवनार में दाल खूब बनती है। चने की दाल। गुटी और फूटी। तड़के-भड़के वाली। मीठे के साथ तीखे तेवर वाली दाल। पूड़ी के साथ भरा दौना, रंज जाए कोना कोना। जेवणार की दाल खूब मेहनत से तैयार होती है। बनती लोहे के कड़ाह में है। जीमने वालों की संख्या के प्रमाण में अंगुल से लेकर ताल-बालिश्त भर ऊंचाई से पानी डाला जाता है और मधरे आंच पर पकाया जाता है। दाल के कड़ाह समाज की सामूहिक सम्पत्ति होते हैं और जहां उनका उपयोग होता है, वे नोहरे कहे जाते हैं। मालवा, राजस्थान, गुजरात तक सामाजिक नोहरे होते आए हैं और हाल के उपभोक्ता वाद में एक रात के भाड़े की वाटिका या गार्डन की दिखाऊ संस्कृति के आगे ये परंपरा अतीत होती जा रही है। हां, अब भी कभी - कभार दाल भरे कड़ाह दिख जाते हैं। दाल परोसने और भरने की डोलचिया नज़र आ जाती हैं तो देहात में बची हमारी संस्कृति की झलक मिल जाती ह